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सोजे-ए-वतन--मुंशी प्रेमचंद


शोक का पुरस्कार मुंशी प्रेम चंद
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धीरे-धीरे मेरी यह हालत हो गयी कि जब तक मेहर सिंह के यहाँ जाकर दो-चार गाने न सुन लूँ जी को चैन न आता। शाम हुई और मैं जा पहुँचा। कुछ देर तक गानों की बहार लूटता और तब उसे पढ़ाता। ऐसे ज़हीन और समझदार लड़के को पढ़ाने में मुझे ख़ास मज़ा आता था। मालूम होता था कि मेरी एक-एक बात उसके दिल पर नक्श हो रही है। जब तक मैं पढ़ाता वह पूरे जी-जान से कान लगाये बैठा रहता जब उसे देखता, पढ़ने-लिखने में डूबा हुआ पाता। साल भर में अपने भगवान के दिये हुए जेहन की बदौलत उसने अंग्रेजी में अच्छी योग्यता प्राप्त कर ली। मामूली चि_ियाँ लिखने लगा, और दूसरा साल गुज़रते-गुज़रते वह अपने स्कूल के कुछ छात्रों से बाजी ले गया। जितने मुदर्रिस थे, सब उसकी अक्ल पर हैरत करते और सीधा नेक-चलन ऐसा कि कभी झूठ-मूठ भी किसी ने उसकी शिकायत नहीं की। वह अपने सारे स्कूल की उम्मीद और रौनक़ था, लेकिन बावजूद सिख होने के उसे खेलकूद में रुचि न थी। मैंने उसे कभी क्रिकेट में नहीं देखा। शाम होते ही सीधे घर चला आता और लिखने-पढ़ने में लग जाता।
मैं धीरे-धीरे उससे इतना हिल-मिल गया कि बजाय शिष्य के उसको अपना दोस्त समझने लगा। उम्र के लिहाज़ से उसकी समझ आश्चर्यजनक थी। देखने में १६-१७ साल से ज़्यादा न मालूम होता मगर जब कभी मैं रवानी में आकर दुर्बोध कवि-कल्पनाओं और कोमल भावों की उसके सामने व्याख्या करता तो मुझे उसकी भंगिमा से ऐसा मालूम होता कि एक-एक बारीकी को समझ रहा है। एक दिन मैंने उससे पूछा-मेहर सिंह, तुम्हारी शादी हो गयी?
मेहर सिंह ने शरमाकर जवाब दिया-अभी नहीं।
मैं-तुम्हें कैसी औरत पसन्द है?
मेहर सिंह-मैं शादी करूँगा ही नहीं।
मैं-क्यों?
मेहर सिंह-मुझ जैसे जाहिल गँवार के साथ शादी करना कोई औरत पसन्द न करेगी।
मैं-बहुत कम ऐसे नौजवान होंगे तो तुमसे ज्यादा लायक़ हों या तुमसे ज्यादा समझ रखते हों।
मेहर सिंह ने मेरी तरफ़ अचम्भे से देखकर कहा-आप दिल्लगी करते हैं।
मैं-दिल्लगी नहीं, मैं सच कहता हूँ। मुझे खुद आश्चर्य होता है कि इतने कम दिनों में तुमने इतनी योग्यता क्योंकर पैदा कर ली। अभी तुम्हें अंग्रेजी शुरू किए तीन बरस से ज़्यादा नहीं हुए।
मेहर सिंह-क्या मैं किसी पढ़ी-लिखी लेडी को खुश रख सकूँगा।
मैं-(जोश से) बेशक!

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